Sunday, January 17, 2010

वे आतंकवादी न थे



नित अपनी पीठ पर


अपनी दूकान को लादे


वह गाँव से शहर आता है


हो तेज़ धूप


या बरखा की फुहार हो


विरासत में मिला


उसकी उम्र से बडा


राहत कुछ तो देता है


उसका जो छाता है।


पत्नी की बीमारी


बेटे की शिक्षा


पल पल बढती


मुनिया की शादी की चिंता


या फिर आज शाम का राशन


सब चिंताओं को


मस्तिष्क में समेटे


चमरे की कतरनों के बीच


घिरा बैठा वह बूढा मोची


ज़र्ज़र हुए तन की


शेष बची ताकत को


एक जूते को


चमकाने में लगाता है


और चमकते जूते को देख


सोचता है


इस एक जोडी जूते के दाम


मेरी दूकान की कीमत से जयादा है


क्या हो रहा है इस शहर में


कौन नेता है कौन अधिकारी


किसने किसको लूटा


की किसने, किससे नोचा खोची


इन सब से बेखबर


अपने काम में मग्न


वह बूढा मोची।


उस समय रह गया हतप्रभ


जब उसकी दूकान (पेटी) को


किसी ने सड़क आईआर फ़ेंक दिया


वे आतंकवादी न थे


थे वो अतिकर्मन के दुश्मन


महापालिका के कारिंदे।


अपने अरमानो का ज़नाज़ा


अपनी आँखों से


होगा देखना शायद


इसकी उसे कल्पना भी न थी।


पुनः अरमानो को अपने


संजोने के लिए


अपनी दुनिया फिर से सजाने के लिए


एक एक कतरन को


बीन रहा था वो मोची।


वो सोच रहा था


उसकी आँखों में आंसू


भरे हुए थे


एक आह खींच कर देखा उसने


महलों वाले


सडकों तक बढे हुए थे

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