यह सच है कि जौनसार बावर और हाटी एक वृक्ष की दो शाखाएँ

यह सच है कि जौनसार बावर और हाटी एक वृक्ष की दो शाखाएँ हैं।
Jounsari Anita and Giripari Shalu
हाटी शब्द की उत्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि अपनी आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी के लिए, पहले यहां के लोग (पूरे पूरे गांव के लोग) वर्ष में एक या दो बार किसी हाट (बाजार) में समूह बनाकर जाते थे। समूह के रूप में जाने के कारण धीरे धीरे ये हाटी के नाम से प्रसिद्ध हो गए। मूलत: यह कनैत ही हैं।
भाषा (बोली)
हाटी समुदाय के लोग एक सांझी हाटी - ब्लावण बोली बोलते है, जिसका जौंसार-बावर की कबिलार्इ बोली के सिवाय] मुख्यधारा की किसी भाषा या बोली से दूर का सम्बन्ध नहीं है। इसे अगर भाषा कहा जाए तो भी गलत नहीं होगा क्योंकि इसकी अपनी एक लिपि बतार्इ जाती है जिसे अब केवल इने-गिने लोग ही जानते हैं, और जो कि लुप्त होने के कगार पर है।
शारीरिक संरचना –
हाटी गठीले, मजबूत तथा छोटे कद-काठ के होते हैं। सिर का पिछला भाग चपटा तथा चौड़े-रवड़े कान इनकी विषेश पहचान है।
परिवार-
हाटी परिवार संयुक्त, बहुपति प्रथा युक्त तथा पुरुष प्रधान है। सबसे बड़ा भार्इ ठोगड़ा या स्याणा (परिवार का प्रमुख) होता है। सामान्यत: जोड़ीदार (बहुपति प्रथा) व्यापक है और यदि भार्इयों में दूसरी षादी होती है, तो भी यह ठोंगड़े के नाम से ही होती है, जो अन्य भार्इयों के साथ, उन सांक्षी पत्नी से जन्में सभी बच्चों के लिए बोबा (पिताश्री) है, संयुक्त पत्नी के बच्चें उन दूसरे भार्इयों को भी बोबा नाम से सम्बोधित करते हैं, तथा यहां लोग चाचा-चाची, भतीजा-भतीजी, ताया-तार्इ, मौसा-मौसा और सौतेली मां आदि रिश्तों से अपरिचित हैं। ठोगड़ा या स्याणा ही घर के अन्दर व बाहर, प्रत्येक से निपटता है, और परिवार के अच्छे व बुरे क्रिया-कलापों का उत्तरदायित्व उसी पर होता है। कुड़वा (परिवार) समुदाय में प्राथमिक इकार्इ है और एक ही निकट पूर्वज के वंजों से बने परिवारों के समूह को आल या वेड़ा कहते हैं। एक क्लैन के कर्इ गाँव समूह का रवयल और कबीला प्रमुख को चोंतरू कहा जाता है।
रीति रिवाज-
समुचे गिरिपार इलाके में प्रचलित रीति रिवाज जौनसार बाबर के रीति रिवाजों के ही अनुरूप हैं, जैसे कि संयुक्त परिवार प्रथा, जोकि हिन्दू कानून में मान्य व्यवस्था से भिन्न है। दाया-भागा और मितक्षरा विचार प्रणाली यहां प्रचलित नहीं है। उत्तराधिकार का उनका अपना ही नियम है, जोकि रिवाजे आम व बाजुल अर्ज कहलाता है। जोड़ीदार (दो भार्इयों की एक पत्नी), जिठोंग ज्येश्ठ पुत्र का अधिकार, कांछोग (सबसे छोटे पुत्र का अधिकार) ही उत्तराधिकार के मापदण्ड हैं, तथा इन्हीं पर बंटवारा आधारित है। वहां प्रचलित कानून के मुताबिक बुजुर्गों की सम्पत्ति में सित्रयों का कोर्इ अधिकार नहीं होता है। आमतौर पर बाल विवाह होते हैं, व्यस्क विवाह तो अपवाद है। पुर्नविवाह और तलाक आम है। तीन प्रकार के विवाह प्रचलित है। बाल विवाह, झांझड़ा और रीत सभी जातियों में ये तीनों प्रकार के विवाह प्रचलित हैं। बारात दुल्हन के घर से चलती है तथा दुल्हे के दरवाजे पर आ जाती है। यह रिवाज जौनसार बाबर व सिरमौर (गिरिपार) के इलावा दे के और किसी भी हिस्से में प्रचलित नहीं है।
इस सम्बन्ध में डा0वन्त सिंह परमार, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, हिमाचल प्रदे ने ßपौलैण्डरी इन हिमालयाजÞ अपनी पुस्तक में पृष्ठ-86 में उल्लेख किया है कि सामाजिक, आर्थिक और सांस्कष्तिक मामलों में जौनसार बाबर के लोग सिरमौर के लोगों के समान है उनके भी वही रीति रिवाज है वही तौर तरीके है। दाया भाग और मिताबरा विवाह प्रणाली यही प्रचलित नहीं है। उत्तराधिकार का उनका अपना ही नियम है। जो कि रिवाजे आम व बाजूल अर्ज कहलाता है। जोड़ीदार (दो भार्इयों की एक पत्नी) जिठोंग, ज्येश्ठ पुत्र का अधिकार कोछोग्र (सबसे छोटे पुत्र का अधिकार ही उत्तराधिकार के मापदंड है तथा इन्हीं पर बंटवारा आधारित है। प्रचलित कानून के मुताबिक बुज़ुर्गों की सम्पत्ति में स्त्रियों का कोर्इ अधिकार नहीं होता है। आमतौर पर बाल विवाह होते हैं, व्यस्क विवाह तो अपवाद है। पुनर्विवाह और तलाक आम है। तीन प्रकार के विवाह प्रचलित है। बाल विवाह, झाझड़ा सौर रीत। सभी जातियों में ये तीनों प्रचलित है। बारात दुल्हन के घर से चलती है, तथा दूल्हे के दरवाजे पर आ जाती है। यह रिवाज जौनसार बाबर व सिरमौर (गिरीपार) के अलावा दे के और किसी भी हिस्से में प्रचलित नहीं है।
जनम संस्कार
गर्भ धारण करने वाली स्त्री प्रसव वाले दिन तक अपनी दिनचर्या आम दिनों की भांति ही व्यतीत करती है। बच्चे को जनम देने के बाद दस से पन्द्रह से बीस दिनों तक स्त्री प्रसूत गह में रहती है।
प्रसूता के घर से घी आटा आदि सामग्री दान दी जाती है। लड़का होने पर लड़के का पिता अपनी प्रसन्नता को व्यक्त करने के लिए सामूहिक भोज का आयोजन करता है। प्रत्येक घर से एक व्यकित को निमनित्रत किया जाता है। इसी दिन प्रथम बार नवजात बच्चे को सभी लोग देखते हैं। नवजात शिशु के प्रथम दर्शन होने के कारण इस दिन को दशराता कहा जाता है।
वैवाहिक संस्कार
वैवाहिक संस्कार की पुरानी परम्परा के अनुसार बच्ची अभी मां का दूध ही पी रही होती है तो उसके विवाह की बात पक्की कर दी जाती है। बड़ी होने पर उसकी विदार्इ होती है। वर्तमान समय में जिस परिवार की लड़की होती है लड़की के घर वाले उचित वर की तलाश करते हैं। योग्य वर मिल जाने पर वह अगली मुलाकात की तिथि निर्धारित करके वापस अपने घर लौट आते हैं। पूर्व निर्धारित तिथि को लड़की के घर वाले गांव के बड़े बुजुर्ग तथा कुछ अन्य सम्बनिधयों को साथ लेकर लड़के के घर जाकर विवाह की तिथि निश्चित कर आते है। इसी प्रकार लड़के वाले भी लड़की के घर जाकर लड़की के घर वालों से उनकी बेटी को अपनी बहू बनाने का आग्रह करते हैं। दोनों पक्षों की आपसी सहमति से विवाह की तिथि निश्चित कर दी जाती है। विवाह में अगिन के समक्ष सात फेरों का चलन पुरानी परम्परा में नहीं है। अब कुछ परिवारों में इसका चलन प्रारम्भ हो गया है। दहेज के रूप में एक पीतल की थाली, एक लोटा, एक बन्टा तथा एक परात दी जाती है। लड़की का मामा द्वारा परात देने की परम्परा है। नर्इ पीढ़ी में दहेज लेने का चलन होने लग गया है।
लड़की जब ससुराल पहुंचती है तो ससुराल पक्ष के द्वारा गांव के लोगों तथा अन्य मेहमानों को भोजन करवाया जाता है। यह परम्परा उस समय से प्रारम्भ होती है जब लड़की लेने जाने की तैयारी होती है। एक दिन लड़की लाने के लिए वहां पहुंचना, दूसरे दिन आराम तथा तीसरे दिन वापस अपने घर पहुंचना। इन तीन दिनों में तीनों समय का खाना खिलाया जाता है।
विवाह में लड़की अथवा लड़के की आपसी सहमति अनिवार्य है। लड़की को इस बात की स्वतन्त्रता है कि यदि किसी कारण वश वह अपनी ससुराल में सन्तुष्ट नहीं है तो वह अपने मायके वालों को इसकी सूचना देकर खीत-रीत पूरी करने पर वह उस घर अपना सम्बन्ध विच्छेद कर सकती हैं। जब लड़की ससुराल में न रहने की ठान लेती है तो लड़की के घर वाले वर पक्ष को कुछ धन देते है जिसे रीत कहा जाता है। यह राशि दो से पांच हजार रुपए तक हो सकती है। रीत लेने के बाद पति का अपनी पत्नी पर कोर्इ अधिकार नहीं रह जाता। लड़की अपनी इच्छानुसार नया वर तलाश करने के लिए स्वतन्त्र हो जाती है।
विवाह प्रथाऐं-
हाटी समुदाय में चार प्रकार की विवाह प्रथाऐं प्रचलित है-
(बाला ब्याव- शादी सन्तान के शैशवास्था में ही हो जाती है, और कर्इ बार तो माता-पिता बच्चों के जन्म से पहले ही अदला-बदली के आधार पर रिश्ता तय कर देते है। मगर ऐसी अवस्था में लड़की बड़ी होने पर ही अपने माता पिता के धर में ससुराल जाती है।
जाझड़ा- इस प्रकार के विवाह में शादी के प्रस्ताव की शुरूआत दुल्हा पक्ष की तरफ से होती है और स्वीकृति के उपरान्त निर्धारित तिथि को दुल्हा के गांव से एक व्यकित दुल्हन के घर बुलाने जाता है तथा दूसरे दिन जाझड़ू (दुल्हन के परिवार के कुछ सदस्य और कुछ ग्रामवासियों की ढोली-बरात) जाझड़ी (दुल्हन) के साथ दुल्हे के घर पहुंचते हैं। विवाह की रस्म, राश्ट्र की मुख्यधारा के विपरीत, दुल्हन के घर न होकर दुल्हे के धर पर पूरी की जाती है। विवाह गैरवैदिक व संक्षिप्त रस्म के बाद गुड़ बांटने और विषेश गीत-संगीत के साथ पूर्ण व सम्पन्न हो जाता है। एक मान्य विवाह के लिए विवाह की हिन्दू रस्में अनिवार्य नहीं है, और विवाह दुल्हे की अनुपस्थिति में भी सम्पन्न हो सकता है, लेकिन उस अवस्था में दुल्हें की जगह पानी से भरा एक कोस घड़ा रखा जाता है। इस प्रकार से विवाहित औरत तब सभी भार्इयों की ब्याहता हो जाती है, जो रिवाज जोड़ीदारे (बहुप्रतीक्षित प्रथा) से जाना जाता है। एक औरत द्वारा एक से अधिक बार विवाह करना भी हाटी समाज में सामान्य प्रथा है। जो औरत जितनी बार विवाह करती है, कर्इ बार उसका नाम इस बात का सूचक बन जाता है, जैसे बारो (12वीं), बिशी (20वीं) आदि।
कन्यादाण - (हि0 कन्यादान) – मासपिन्डा, प्रचलित शब्द बहुविवाह बहु पत्नी, बहुपति, पुर्नविवाह जैसे रिवाज आम है। परन्तु फिर भी किसी लड़की की प्रथम षादी चाहे वह बहुत छोटी उमर में कर दी हो तो कन्यादाण कहलाती है, लड़की का बाप दीन हालत में लड़के के पिता से कहता है, ßसगा मास पिंडा अस मेरे ओको किए भी नी आथीÞ दहेज के नाम पर लुटड़ी मुगाली लोटा तथा थाली दी जाती थी चाहे कोर्इ कितना ही सम्पतित वाला हो, परन्तु दैनिक जीवन में बहुत आवश्यक वस्तुओं के अतिरिक्त, दराती, रस्सी, लोटा, थाली, परात, बन्टा (टोकनी) मात्र लड़की वाला लड़की साथ देकर अपने घर से मात्र एक सूट पहना कर विदा करता है तथा राष्ट्र की धारा से अलग ही लड़की के घर से बरात लड़के के घर जाती है।
मृत्यु संस्कार:
गांव में जब किसी की मृत्यु हो जाती है तो उस परिवार के लोग गांव में बसे हरिजनों में से किसी एक के द्वारा अपने निकटवर्ती सम्बनिधयों को सूचना भिजवाते हैं। सभी के पहुंचनें पर गांव के शमशान में चिता जलार्इ जाती है। यहां तक पंडित की कोर्इ भूमिका नहीं रहती है। तीसरे दिन असिथयां एकत्रित की जातीं हैं। गांव के पंडित को साथ लेकर असिथयों को हरिद्वार ले जाया जाता है। हरिद्वार पहुंच कर असिथयों को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता है।
5,7, अथवा 9 दिनों का शोक मनाया जाता है। किसी वृद्ध के मरने पर 9 दिनों का शोक मनाया जाता है। इसी प्रकार उससे कम आयु वाले की मृत्यु होने पर 7 दिन तथा इससे कम आयु वाले की मृत्यु होने पर 5 दिनों तक का शोक मनाया जाता है। शोक के अनितम दिवस पर गांव के लोग, नाते रिश्तेदार एकत्रित होते हैं। प्रत्येक मेहमान अपने साथ एक मुटठी उड़द तथा मिटटी के छोटे से बर्तन में थोड़ा सा घी लेकर आते हैं जिसे मृतक के परिवार वालों को दे दिया जाता है।
भोजन] खान-पान व व्यंजन-
गिरिपार के उत्तर पहाड़ के दूसरे लोंगों जैसा भोजन है। कुकड़ी (पारम्परिक मक्का) भोजन का मुख्य हिस्सा है, जिसे सत्तू (ताजी उबली या भूनी हुर्इ मक्का से बना इस्तेमाल के लिए तैयार आटा) में तब्दील करके पानी या छाषाष (दूध के मटठा) के साथ घोल कर खाया जाता है। छा को पानी की जगह पीने के लिए भी प्रयोग की जाती है। गेहूं और चावल का खाने में प्रयोग केवल त्यौहार, उत्सव या फिर अतिथियों के आगमन पर होता है। विभिन्न उत्सवों और त्योहारों पर बनने वाले विषेश व्यंजनों में खेड़ाघेंड़ा, सुतौले, पटाण्डे, बिलोम, लुहश्के, बेडोली, तेलपाकी, चिल्टे, पोली, सिड़कू, खोबले, उलौले, चुले, धरोटी-भात, अस्कोली, ठिडके, डोणे और कर्इ अन्य पकवान शामिल है, और घी इन सभी पकवानों का एक अपरिवर्जनीय अभाज्य हिस्सा है जो परोसे हुए खाने पर घियाल्टू लोटकि (घी रखने का बर्तन) से डाला जाता है।
कर्म जाति धार्मिक मान्यताऐं और लिंग का विचार किये बिना प्राय: सभी हाटी मांसाहारी है। कच्चा और भुना हुआ मांस बहुत पसन्द किया जाता है। मांस जंगली जानवरों का शिकार करके या फिर इसी उददेश्य से पाले गये पशुओं से प्राप्त किया जाता है। सभी पुरूष और औरतें विशेषत: उत्सवों के अवसर पर सूर, घिग्गटी व पारवली (जड़ी – बूटियों, अनाज और गुड़ आदि से स्वयं तैयार की गर्इ मदिरा की किस्में) पीते हैं, जिसके बाद आमतौर पर सामूहिक नाच-गाना होता है, जिसमें सभी पुरू स्त्रियां भाग लेते हैं।
जाड़ों में सुबह के भोजन के साथ लोग दही या मटठा खाते हैं और रात को रोटी। गर्मी के दिनों में मककी के सततू के खाने का रिवाज है। किसान दिन में तीन या चार बार खाना खाते हैं। सुबह के समय गगूटी, मध्याहन में चोलार्इ और मंडुवा की रोटी तथा रात को चावल या चपाती खाते हैं। गर्मी के दिनों में दिन में दो तीन बार सत्तू खाते हैं। सार्इं और घरथी क्षेत्र के लोगों का मुख्य भोजन सततू है। मांस मछली सभी खाते हैं। इधर शाकाहार का चलन भी देखने को मिलता है। मैंने शरली प्रवास के दौरान देखा कि कुन्दन सिंह शास़्त्री सहित कुछ अन्य अन्य घरों में मांस का सेवन नहीं किया जाता। पोटांदे का एक तरह का घी से बना हुआ चीला बहुत पसन्द किया जाता है जिसे अन्य स्थानों पर मंडा या पड़ा भी कहा जाता है। पहाड़ में उसमें नमक या मीठा नहीं मिलाया जाता। त्यौहार का यह मुख्य भोजन है। पोंटदे को दूध या खाीर के साथ खाते हैं। पिसे चावल का उसकलियान बनाते हैं जिसे घी और खांड के साथ खाया जाता है। पोटांदे उसकलियान तथा खीर यहां के त्यौहारों के मुख्य भोजन हैं।
चैहली- सुबह के नाश्ते को चैहली कहा जाता है। चैहली की थाली में गेहूं अथवा मकर्इ की रोटी, घर का बना सफेद मक्खन, अचार तथा चाय परोसी जाती है।
दुफारी- दोपहर के भोजन को दुफारी कहा जाता है। गेंहूं अथवा मकर्इ की रोटियां, कोर्इ एक सब्जी, उड़द या कुल्थी की दाल साथ में लस्सी का गिलास पीतल की थाली में परोसा जाता है।
बियाली- रात्रि भोजन को बियाली कहा जाता है। इसमें भी गेंहूं अथवा मकर्इ की रोटियां, कोर्इ एक सब्जी, उड़द या कुल्थी की दाल तथा चावल को पीतल की थाली में परोसा जाता है।
त्यौहारों के अवसर पर कुछ विशेष पकवान बनाए जाते हैं जिनमें से बेढ़ौली मुख्य है। उड़द की दाल को भिगो कर उसका छिलका उतार कर उसे पीसा जाता है। इसमें नमक मिर्चा अदरक लहसुन आदि मिला कर इसका भरवां परांठा बनाया जाता है।
गुड़ और भंगजीरा भर कर भी मीठा पराठा बनाया जाता है। हाटी समुदाय के लोग जिसे मिठार्इ के रूप में बहुत पसन्द करते हुए बढ़े चाव से खाते हैं।
स्त्रियों की स्थिति
गिरीपार इलाके में स्त्रियों की दशा बहुत बुरी है। उन्हें दिन रात कड़ी मेहनत करनी पड़ती हैं, तब भी उन्हें पुरूषों के मुकाबले] हीन समझा जाता हैं, न तो उनका पालन पोण ही ठीक ढंग से होता है, और न ही उन्हें शिक्षा दी जाती है, नैतिक मामले में भी वहां की स्त्रियों को जौनसार बावर की तरह दो तरह का जीवन व्यतीत करना पड़ता है। पति के घर जहाँ इसका जीवन बंधा बंधा सा होता है, वहां पिता के घर वह स्वतंत्र जीवन व्यतीत कर नाच गान आदि उत्सव में पूर्ण स्वतन्त्र रहती हैं। जौनसार बावर की तरह बहुपति प्रथा भी इस क्षेत्र में सर्वथा पार्इ जाती है। यह सारी प्रथायें इसके पिछड़े जीवन को अधिक पिछड़ा बनाती है जिससे वह अच्छा सामाजिक जीवन व्यतीत नहीं कर सकती। अच्छी शिक्षा, अच्छा व्यवसाय, तथा पुरू के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर चलने के लिए, युगों पिछुड़ी गिरीपार की स्त्रियों के उत्थान के लिए इस गिरीपार क्षेत्र को जन-जातीय घोषित कर दिया जाना नितान्त आवश्यक है।
शिक्षा और संचार
शिक्षा- आर्थिक पिछड़ापन अति निर्धनता को जन्म देता है, जो निर्धनता माता-पिता के लिए अपनी सन्तान को शिक्षित करना अधिक कठिन बना देती है, और यह स्थिति कारणवश आगे निरक्षरता की ओर ले जाती है। आंकड़े दर्शाते हैं कि गिरीपार क्षेत्र में साक्षरता दर जिले के दूसरे हिस्से (गिरीवार) से बहुत कम है। 1991 की जनगणना के रिकार्ड मुताबिक गिरीपार क्षेत्र में साधारण दर केवल है। नारी शिक्षा न के बराबर है। गिरिपार क्षेत्र की घनी आबादी के लिए कोर्इ महाविधालय नहीं है, एक औधोगिक प्रशिक्षण संस्थान तक नहीं है। गिरिपार क्षेत्र में दूसरे क्षेत्रों की अपेक्षा शैक्षणिक (संस्थान) बहुत ही कम है, और अधिकतर का असितत्व केवल कागजों पर है। यधपि हिमाचल प्रदे सरकार इस क्षेत्र नियुक्त कर्मचारियों के लिए अतिरिक्त बुद्धियुक्त पूरक भत्ते व अन्य प्रलोभन देती है, परन्तु फिर भी इस क्षेत्र से बाहर कर्मचारी अत्याधिक परेशानियों, दुर्गम स्थल और मूल-भूत सुविधाओं की कमी के कारण यहां सेवा करने को तैयार नहीं है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि सम्पूर्ण गिरिपार खण्ड अत्यधिक निर्धनता के कुचक्र में जकड़ा पड़ा है। और सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन, सांस्कृतिक अलगवा, आदिम दृशिटकोण व जीवन-शैली के आधार पर यह अब तक आधुनिक भारत की मुख्यधारा से अलग-थलग पड़ा है। इस क्षेत्र के निवासी अन्य क्षेत्रों के बराबर में आ पाने की कोर्इ उम्मीद, कोर्इ आश्वासन और कर्इ अवसर नहीं देख रहे हैं। 1967 में साथ लगे जौंसार-बावर क्षेत्र की अपनी बिरादरी जौसारा जन जाति को अनुसूचित घोषित किए जाने पर जो अधिकार मिला वही अधिकार इन्हें न मिलने पर तथा सौतेले व्यवहार की सख्त अनुभूति की वजह से यहां नौजवानों में उफनता असंतोश अपनी सीमा पार करने के निकट है। लोगों की कल्पना और विशेषकर नर्इ पीढ़ी के दिलों में गिरिपार क्षेत्र की हाटी जनजाति को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने की अकेली मांग घर कर गर्इ हैं। ये महसूस करते है कि केवल इसकी पूर्ति ही अकेले क्षेत्र के लोगों के लिए उन्नति और विकास के अवसर खोल सकती है। हाटी में एक दृढ़ भावना है कि वे गम्भीर भेद-भाव के शिकार हुए है। जौंसारा भार्इयों, जो हाटी की ही जात-बिरादरी से हैं, को जो कुछ 1967 में दिया गया वहीं उसके भार्इ हाटी भार्इयों को इन 40 वर्षों तक देने से नकारा या रोका नहीं जाना चाहिए।
वेशभूषा
सिरमौर जिले के अन्य पहाड़ी हिस्सों की भांति गिरीपार क्षेत्र के अन्य हाटी समुदाय की पोशाक वही है, जोकि अम्बाला और सहारनपुर जिलों की है। अधिकतर गिरीपार के हाटी समुदाय के पुरुष बिना बटन का एक एक सफेद वेट (लोइया), काले रंग का ऊनी कटा हुआ पायजामा और एक ऊनी टोपी पहनते हैं। कुछ लोग पायजामे के स्थान पर लंगोटी भी पहनते हैं।
स्त्रियों की पोशाक लंहगा, कुरती या अंगा और सिर पर सफेद या रंगीन रूमाल। विवाहित स्त्री नाक में सोने की नथ और सिर बांधने के लिए चौके का उपयोग करतीं हैं। कौली या दूसरी छोटी जाति के समझे जाने वाले लोग चांदी की नथ पहनते हैं। चौक आमतौर से चांदी के होते हैं, जिनसे सिर के पीछे बालों को सम्भाला जाता है। क्षेत्र के लोगों की वेशभूषा कुर्ता पाजामा ही है। पहले के लोग कपास बोकर, उसकी रुर्इ तैयार करके फिर उसका सूत कात कर कपड़ा बनाते थे। उसी कपड़े से कुर्ता पाजामा बना कर पहनने के वस्त्र बनवाते थे। वर्तमान में अधिकांशत: आधुनिक मिलों द्वारा तैयार वस्त्रों के कुर्ता पाजामा पहनते हैं। पुरुष कुर्ता पाजामा पहनते हैं तथा स्त्रियाँ सलवार कमीज जिसे शमीज भी कहते हैं पहनतीं हैं। उस पर दुपटटा ओढ़ने की परम्परा है।
शरली निवासी श्री कुन्दन सिंह शास्त्री जी ने यहां की वेशभूषा की जानकारी देते हुए बताया था- पुरुषों में चुवा टुपे (गोल टापी), गोछा (कबिलार्इ लंगोट) व झेगाट और सित्रयों में ढाटू (सिर ढांपने का वस्त्र) लुगड़ी (महिलाओं का ढीला कबिलार्इ चोंगा), सदरी तथा कुरती (महिलाओं का स्वयं निर्मित कबिलार्इ कोट) हमेषा पहने जाने वाले वस्त्र है, जिनके अतिरिक्त खिदड़ा, कुटड़ा (एक दूसरे को ढकते फटे पुराने चिथड़ों से बनाया गया कोट) शीत ऋतु तथा बोझ उठाते समय पहना जाता है। हाटी ज्यादातर नंगे पांव चलते है, परन्तु कभी कभी ये छितरा, ओलव, रवींषड़ा या पाणोय (गाय, बैल या भैंस के कच्चे चमड़े से बने कबिलार्इ जूते) पहन लेते है, और बर्फ पर चलने के लिए खुरशे (चमड़े या बकरे के बालों से बने जूते) इस्तेमाल करते हैं।
लोर्इया, लोर्इ (लम्बा कोट नुमा ऊनी वस्त्र), झगा (पुरुषों की कबिलार्इ कमीज), सुथाण (ऊनी कबिलार्इ पायजामा), गांची (कमर में बांधी जाने वाली ऊनी डोर) पुरुषों में तथा सित्रयों में मेरवली (ब्लाऊज नुमा वस्त्र), सुथणी (कबिलार्इ सलवार), ढाटू व टाले (सिर ढापने का वस्त्र) विशेष अवसरों और उत्सवों पर पहने जाने वाली वस्त्र हैं।
महिलाऐं नाथ, तिल्ली, फूली, कोका, मुरकी नाक में व टुरेटू उपराली, उतराली, धागूले, लुढ़के, तूंगोल कान में, हाँसुली, गेरा, काच, दोसरू गले में और हाथ में कागणटू तथा छोलबाले जैसे आभूण ऐसे विशेष अवसरों तथा उत्सवों पर पहनती हैं, जबकि पुरूष बाजू में धागुले और कान में नोती पहनते हैं। हाटी महिलाओं में सिन्दूर, बिन्दी या चूडि़यों के प्रयोग का प्रचलन नहीं है, और अविवाहित महिलाएँ जिन्हें धियान्टी कहा जाता है, कोर्इ गहने नहीं पहनती।
व्यवसाय
ßजौनसार बाबरÞ के लोग जिस प्रकार से अपना व्यवसाय करते है, अर्थात उनका मुख्य व्यवसाय कृषि है, उसी प्रकार से हिमाचल प्रदे के सिरमौर जिला के यह क्षेत्र भी जिसमें सगडाह, शिलार्इ, उप-तहसील कमराऊ तथा सात पंचायतें पोंटा की पूर्णतया कृषि पर आधारित है। इन लोगों के पास भूमि नगण्य है। जैसा कि जौनसार बाबर में है, और पैसा भी इनके पास इतना नहीं है। आर्थिक तौर पर पिछड़े है। रोजगार के कोर्इ भी अवसर यहां पर नहीं है। उधोग धन्धे नाम की कोर्इ चीज नहीं है, फलस्वरूप यह क्षेत्र अभी भी पिछड़ेपन की लपेट में हैं।
समुदाय का मुख्य व्यवसाय कृषि है, जिससे कुल आबादी का लगभग जुड़ा हुआ है। सीढ़ीनुमा खेत पहाड़ी ढलानों को काटकर बनाये गए हैं। भूमि जो बहुत छोटी है जो प्रति परिवार एक एकड़ से भी कम बैठती है, और अधिकतर लाभप्रद नहीं हैं। कृषि कार्य परम्परागत कृषि औजारों, जैसे-होल, क्रोधि, गोयड़ा, गाएण आदि में किये जाते है। पीढि़यों पुरानी फसलें जैसे-कुकड़ी, कोददी, जौं, शावक, कायणी, चुलाय, गागुर्इ, यलोथ आदि, ओगला, चिणीय आदि उगार्इ जाती है।
हाटी लोग चारा, गोबर-खाद, कृषि पैदावार तथा सामान आदि की पीठ पर एक जगह से दूसरी जगह ढोने के लिए स्वयं निर्मित वस्तुऐं, जैसे निशालबां से बने-चिल्ला, घिटू, गेकड़ी, ओल्ला, होलुप आदि पेड़ों की छाल के रेशों से बने-बावर, शिक्ला, पागीय आदि तथा पशुओं की खाल से बने रवील्टु, खल्टा, जुड़ाल आदि उपयोग में लाते हैं, और कृषि पैदावार का भण्डारण खुड़ोवली, कोठार, कोठारी तथा घूले आदि में करते हैं। इसी प्रकार वे कटार्इ-छटार्इ के लिए दात्रों, दाच, कोराड़ी, पचयाँडू, बिछान्द्रो, डोंगरा जैसे खुद बनाये औजार इस्तेमाल करते हैं। यहां लेन देन में साटा बाटा का प्रचलन है जिसमें तोल की जगह बांनिगाल से स्वयं निर्मित वस्तुऐं, जैसे-सोला, पाथा, शुपो, ओल्ला, घिल्ला आदि इस्तेमाल में लार्इ जाती है तथा नापन में आंगुल, कुडि़योल, गुश्टोंग, बिलांट, हाथ, पागोय आदि से काम लिया जाता है।
यहां भेड़-बकरी, गाय-भैंस जैसे पशुओं का पालन कृषि का सम्पूरक है। भेड़ की ऊन को भेलावणा से काट कर उसकी फानणी या धरनी से फनार्इ की जाती है। ऊन को टिकरू पर कात कर बनाए ताने-बाने से राछ पर ऊनी पटिटयां बनार्इ जाती है, जिनसे विभिन्न प्रकार के रवोटियोण-मेठियोण (पहनने तथा ओढ़ने के कबिलार्इ वस्त्र) तैयार किए जाते हैं।
हाटी शिकार में निपुण होते हैं, और पशुओं को खाद्य पदार्थों में उपयोग करने, आवास तथा वस्त्र बनाने और आवाश्यक औजार तैयार करने के तरीकों को भली भांति जानते हैं। वे जंगली जड़ी-बूटियों, वन्य अनाजों और फलों को भी अपने खान-पान के लिए इकठठा करते हैं। पेड़ों की छाल व उससे निकले रेषों से चटार्इयां, रसिसयां आदि तथा कुछ आवास निर्माण सामग्री बनार्इ जाती है। निरक्षरता, पिछड़ापन और कर्इ अन्य सामाजिक कुरितियों के कारण नौकरियों और दूसरे व्यवसायों में हाटियों की औसत नगण्य है, और ßउत्तम खेती मध्यम बाण, निखिद चाकरी भीख नु दान की सूक्ति अक्षर: व्यवहारिक है। पूरे परिवार के कठिन परिश्रम की आय से भी जीवन-यापन मुश्किल से होता है। प्रति व्यक्ति औसतन आय एक हजार रूपये वर्षिक से काफी कम है, जो राश्ट्रीय औसत से बहुत नीचे है। कृषि और पशुपालन ही हाटी समुदाय का मुख्य व्यवसाय माना जा सकता है।
कृषि
हाटी समुदाय का भूभाग अधिकांशत: ऊंचो पहाड़ वाले हैं। यहां बहुत कम खेत खाली छोड़े जाते हैं। बस्तियों से दूर खील और धांग जैसे अधिक उपयोगी न होने वाले खेत भी खरीफ में बोए जाते हैं। यदि वर्षा बहुत अच्छी हुर्इ तो रब्बी में भी उनमें खेती की जाती है।
गिरीपार क्षेत्र में आम तौर से दो फसलें रब्बी और खरीफ होती हैं। रब्बी की फसल में जौ, गेंहू, चना, सरसों, मसूर, तम्बाकू, और अफीम जोकि सितम्बर - अक्तूबर आश्विन में बोए जाते हैं तथा दिसम्बर - जनवरी पूस में काटे जाते हैं। कहते हैं कि कुछ साल पहले इधर के पहाड़ों पर बर्फ पड़ती थी, परन्तु बुजु़र्ग बताते हैं कि विगत कर्इ सालों से बर्फ के दर्शन ही नहीं हए हैं। बर्फ पड़ने वाले पहाड़ों में गेंहू को सितम्बर में बो दिया जाता है। यह फसल अप्रेल, मर्इ तथा कभी कभी जून में तैयार होती है।
खरीफ की फसल में मक्की, धान, तिलहन, अदरक, कपास, लाल मिर्च, चौलार्इ, मंडवा, कुल्थी, उर्द, गोगअी, कचालू तथा हल्दी है। आमतौर पर खरीफ की फसलें वर्षा के आरम्भ के साथ बोर्इ जाती है। मक्का, गैहूं, उडद, कुल्थी, चना मसूर आदि यहां की प्रमुख उपज हैं। गन्ना यहां नहीं बोया जातां
चावल की खेती में बासमती, जीरी, छुहारा, झिंझान, मगोरा, मगोरी, मुंजी, बेगम, रामजवाइन, सांठी सिंचार्इ वाले खेतों में बोए जाते है। कालोन, ढोलू, चम्पा, बोलोन, उजला, उखल, संदरू, बंकसर, रितवा तथा त्रिशाल वर्षा के भरोसे बोए जाते हैं।
टमाटर और अदरक की भी अच्छी पैदावार होती हैं। अदरक और हल्दी की फसल को नगदी की फसल माना जाता है। अदरक चैत में लगाया जाता है तथा दिसम्बर में अदरक को निकालकर अप्रेल तक उसे जमीन के भीतर गाड़ दिया जाता है। हल्दी भी उन्हीं स्थानों पर होती है। अदरक किसी खेत में साल में एक ही बार लगाया जाता है जबकि हल्दी को दो साल तक उसी खेत में रखा जा सकता है जिससे उसकी गांठें बड़ी और अधिक भारी हो जाती हैं। हल्दी को निकालकर उबालकर सुखा लिया जाता है।
पहाड़ी और काकर दो तरह के तम्बाकू भी होते हैं जिनमें पहाड़ी तम्बाकू अदरक के साथ बोया जाता है। काकर तम्बाकू दून और नाहन तहसील के निचले हिससे में बोया जाता है। इसमें पहाड़ी की भानित पत्ते दो बार नहीं बलिक एक ही बार तोड़े जाते हैं।
सिंचार्इ के संसाधन नहीं है। हाटी समुदाय का कृषक केवल प्राकृतिक वर्षा पर ही निर्भर रहता है। अगर वर्षा अच्छी हुर्इ तो कालजीरी और अदरक से सौंठ बनाकर बेचने से नगद प्राप्ति होती है। आलू की पैदावार भी केवल उतनी ही होती है जितनी कि घर में खपत होती है।
इधर यूरिया खाद के प्रयोग ने पैदावार में कुछ बढ़ोतरी अवश्य की है। अनाज की पैदावार कठिनार्इ से उतनी ही होती हे जिससे कि परिवार का गुजारा हो सके। अधिकांशत: राशन तक मोल लेकर घर के सदस्यों का पेट भरा जाता है।
पशुपालन
कृषि के बाद यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन है। गाय, बैल, बकरी तथा भेड़ पाली जाती हैं। यहां की गायें पहाड़ की गाय की तरह छोटी और दिन में दो किलो तक दूध देती हैं। गिरीपार अर्थात हाटी समुदाय की गायें अच्छी मानी जाती हैं। यह दिन में तीन बार दुही जाती हैं, ये पांच किलो तक दूध देती हैं। उपरी पहाड़ों में पशुओं को मकान की निचली मंजिल में रखा जाता है, जिसे ओबरा कहते हैं। ओबरा कहीं कहीं चरागाह के पास गांव से दूर होता है। धनी लोग भैंस भी पालते हैं। इन्हें रखने के लिए दोहची गौशाला बनार्इ जाती है। आमतौर से गांव की सारी दोहचियां चरागाहों में एक ही स्थान पर बनार्इ जातीं हैं। इनसे उत्पन्न दूध घी मक्खन का उपयोग अधिकांश्त: घर में ही किया जाता है। अधिक मात्रा में घी होने पर उसे बेचा भी जाता है। अधिक पशु होने पर दूध भी बेचने की प्रथा है।
यहां के लोग भेड़ बकरियां भी पालते हैं। भेड़ों को खास तौर से उन के लिए पाला जाता है परन्तु बकरियों को मांस के लिए ही पाला जाता हैं। भेड़ों को गर्मियों में निचली स्थानों पर भेज दिया जाता है।
सूअर पालन का मुख्यत: भंगी और पहाड़ी कौली जातियों का कार्य है। जंगली सूअर का मांस कनैत और दूसरी जाति के लोग भी बढ़े चाव के साथ खाते हैं, लेकिन ग्राम्य सूअर के मांस को अभक्ष्य माना जाता है। मुर्गा पालने का रिवाज भी बहुत कम है।
अर्थव्यवस्था
जैसा कि लिखा जा चुका है विभिन्न ग्रामों में बसे हाटी समुदाय के लोगों का मुख्य पेशा कृषि है। वर्षा पर आधारित होने के कारण उपज की मात्रा उतनी नहीं होती जिससे कि नगद धन की प्रापित हो सके। गुड़, नमक, सीरा, मिटटी का तेल, सरसों का तेल तथा कपड़ों की खरीददारी के लिए इन्हें निकटवर्ती बाजार विकास नगर जाना पड़ता है।
विकास नगर कफोटा से लगभग पचास साठ किलोमीटर की दूरी पर है। यहां के निवासी यहां से कर्इ पहाड़ पार करके पैदल विकास नगर पहुंचते थे। वहां से आवश्यक खरीददारी करके पचास से सौ किलो का भार अपने कन्धों पर ढोकर वापस अपने गांव पहुंचते थे। रास्ते में टोंस नदी पड़ती है। उसपर रस्सा बान्ध कर स्वयं तथा सामान को पार करते थें। आज यहां छोटी बसों तथा जीप का चलन हो गया है जिससे आवागमन की सुविधा कुछ सहज हो गर्इ है। परन्तु हाटी समाज के अन्य कर्इ ग्रामों के निवासी आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है।
निर्यात और आयात
निर्यात- गैंहू, चना, हल्दी, सौंठ, अफीम, मकका, चावल, मधु, सूखा अनारदाना, हरर अथवा हर्रा, लकड़ी बांस तथा अखरोट। गैंहू और चना कियारदून से चूहड़पुर देहरादून जाता है। कियारदून कका अनाज अमबाला जिले में भी पहुंचता था। शिमला, डगशाइ्र, कसौली और सोलन के बाजारों में भी यहां की वस्तुओं का निर्यात होता है। इधर टमाटर की फसल दिल्ली तक के बाजार में पहुंचने की भी जानकारी मिली है। मोटरों के चलने से पूर्व यहां के लोग सोंठ और हल्दी अपनी पीइ पर लाद कर बिलासपुर और जगाधरी अम्बाला तक ले जाते थे। अपनी चीजों को बेच कर वहां से दूसरी काम की वस्तुएं लाते थे।
आयात- मिल के कपड़े, कारखानों द्वारा निर्मित दूसरी चीजें, तांबे, पीतल अल्यूमिनियम के बरतन, नमक चीनी तथा गुड़ बाहर से आता है।
बाहरी दुनियाँ से व्यवहार में झेंप
हाटी कबीला एक अंर्तमुखी समुदाय है, और सामाजिक सम्बन्धी और विवाह के रिश्ते प्राय: आसपास के गांव तक ही सीमित रहते हैं, परन्तु अपने समुदाय से बाहर के लड़के और लड़कियों के साथ शादियां नहीं की जाती है। गैर हाटी क्षेत्रों के लिए पलायन और बाहरी लोगों से मेल-व्यवहार नगण्य है। हाटी में झेंप और झिझक की मनोवृत्ती है और वे प्राय: कार्यालयों, पुलिस थानों, व अदालतों में जाने से कतराते हैं, और मौजूदा प्रबल परेशानियों को चुपचाप सहन करना बेहतर समझते हैं, या फिर बाहरी सहायता लेने की अपेक्षा समाधान वहीं रवुगली के माध्यम से करने की कोशिश करते हैं। यदि उन्हें कभी इन सरकारी कार्यालयों में जाना पड़े तो भी वे किसी विश्वासी साथी के बिना नहीं जायेगे।
भवन- झुंगड़ा या घोर (मकान)
आमतौर पर पत्थर, लकड़ी और विशेष गारे से बनाये जाते हैं, जिनकी ढालदार छतें, प्लेट-पत्थरों से ढकी होती है। भूतल पर ऊँचार्इ लगभग पांच फुट होती है, जिसे ओबरा, छाल या मांडो कहते हैं, और प्राय: पालतू पशुओं के वास के लिए इस्तेमाल होती है। लकडी के फर्श से बनी करीब 7-8 फुट ऊँची उपरी मंजिल बाऊड़, परिवार के बैठने, भोजन कक्ष और सोने आदि के रूप में प्रयोग होती है। पूरा कुड़बा (परिवार) एक आयताकार कमरे में दो समान्तर पंकितयों में सोता है, तथा कर्इ अवसरों पर एक पंकित एक ही ढाबली, दुओड़ या चेम्ष (स्वयं निर्मित ऊन के बड़े कम्बल) ओढ़नी के रूप में इस्तेमाल करती है। बिछोने की जगह फर्श पर गादरो, तापोड़ या सौंप (घास या पेड़ रेशों से बनी चटार्इ) बोरवराली (बकरे की खाल) या खोड़ली (भेड़ की खाल) का उपयोग होता है। कुछ मकान तीन मंजिल भी होते हैं, जिनकी बीच वाली मंजिल करीब चार फुट ऊँची होती है, और उसे मजिऊ कहते हैं।
उत्तराधिकारी-
उत्तराधिकार के नियम मान्य हिन्दू मनवाधिकार से पूर्णत: भिन्न है। पारिवारिक बंटवारे व उत्तराधिकार में दायाभाग और मिताक्षर पद्धयती हाटी समुदाय में प्रचलित नहीं है। इस सम्बन्ध में वे अपने रिवाज-ए-आम और बाजिब़-उल-अर्ज द्वारा संचालित होते हैं। क्योंकि यह जोड़ीदार (बहुपति प्रथा) का प्रचलन व्यापक है इसलिए एक भार्इ की मृत्यु पर संपत्ति में उसका हिस्सा औरत व बच्चों को न मिलकर उसके जीवित भार्इ या भार्इयों को मिल जाता है, और यह प्रणाली तब तक जारी रहती है, जब तक परिवार में एक भी पुरू जीवित है, और इस प्रकार स्त्री का संपत्ति में कोर्इ अधिकार नहीं है। बहुपति प्रथा एवं उत्तराधिकार नियम आपकी प्रेम, नियोजित परिवार और लघु भूमि जोत को और अधिक टुकड़ों से बचाने में एक विशिष्ठ रीति साबित हुर्इ है।
पारिवारिक बंटवारा एक असामान्य बात है। बंटवारे में कोणछोम (सबसे छोटे भार्इ को उसके निश्चित हिस्से के अतिरिक्त दी जाने वाली सम्पतित - आमतौर पर एक घर) जेठोम (सबसे बड़े भार्इ को उसके निश्चित हिस्से के अतिरिक्त दी जाने वाली सम्पतित - आमतौर पर एक उपजाऊ खेत) और जिऊगा (जिसका पुत्र के साथ माता-पिता जायें उसे उसके निश्चित हिस्से के अतिरिक्त दी जाने वाली निश्चित- आमतौर पर गाय-भैंस आदि) का रिवाज आम है। बंटवारे के वक्त सांझी पत्नी प्राय: सबसे बड़े भार्इ के हिस्से में आती है। सामान्यत: माता-पिता सबसे छोटे बेटे के साथ जाते हैं।
झगड़ों का निपटारा-
विवादों को निपटाने और न्याय प्रदान करने बारे हाटी की अपनी प्रणाली है, जिसे न्याय कहते हैं। जब किसी भी प्रकार में विवाद होता है तो सर्वप्रथम विवादित पक्ष इसे आपसी बातचीत से हल करने को महत्व देते हैं, और यदि ऐसा सम्भव न हो तो खुमली (सम्मानित बुजुगोर्ं की पंचायत) बुलार्इ जाती है। जिस के लिए खुमली बुलाने वाले पक्ष को बिश्टाला (बीस रूपये का तलबाना शुल्क) देना होता है और बिश्टाला के अतिरिक्त दोषी ठहराये गए पक्ष को डाण्ड (दण्ड) भी देना होता है, जो अधिकतर धाम (सामूहिक भोज) के रूप में होता है, और उस सामूहिक भोज का अनिवार्य हिस्सा पशुबली और मांस से बना भोजन होता है, जिसे सभी इकठठा बैठकर खाते हैं। जब किसी व्यक्ति को दोषी घोषित किया जाता है, और वह दोष स्वीकार न करें तो उस पर घुनिटया नीम, देऊल नीम, देवरि ढाल, शौ या लोटे-लण की व्यवस्था लागू की जाती है, और यदि यह खुमली के फैसले का पालन नहीं करता तो उसे छिंग्गा (बर्तन - व्यवहार बन्द) या ठेक (सामाजिक बहिश्कार) से दणिडत किया जाता है। यदि मामला मानहानि से सम्बनिधत हो तो दोषी पर फाकी (हरजाने की निर्धारित रकम) लगार्इ जाती है। कत्ल जैसे गम्भीर अपराधों में भी पुलिस में रिपोर्ट और अदालतों की रण लेना एक अपवाद है।
आर्थिक स्थिति
सिरमौर के गिरीवार क्षेत्र (जिला का दूसरा हिस्सा) की तुलना में गिरीपार हाटी समुदाय का ये क्षेत्र, आर्थिक रूप से बिल्कुल पिछड़ा और कटा हुआ है। उधोग के नाम पर यहां एक भी औधोगिक इकार्इ नहीं है जबकि इस क्षेत्र में प्राकृतिक सम्पदाओं की प्रचुरता है। इसके अतिरिक्त यह यातायात व संचार के साधनों की कमी के कारण भी पिछड़ा हुआ है।



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